Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन

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सुमन ने कातर भाव से कहा– वकील साहब के घर को छोड़कर मैं और कहीं नहीं गई; विश्वास न हो तो आप जाकर पूछ लो। वहीं चाहे जितनी देर हो। गाना हो रहा था, सुभद्रादेवी ने आने नहीं दिया।

गजाधर ने लांछनायुक्त शब्दों में कहा– अच्छा, तो अब वकील साहब से मन मिला है, यह कहो! फिर भला, मजूर की परवाह क्यों होने लगी?

इस लांछन ने सुमन के हृदय पर कुठाराघात का काम किया। झूठा इलजाम कभी नहीं सहा जाता। वह सरोष होकर बोली– कैसी बातें मुंह से निकालते हो? हक-नाहक एक भलेमानस को बदनाम करते हो! मुझे आज देर हो गई है। मुझे जो चाहो कहो, मारो, पीटो; वकील साहब को क्यों बीच में घसीटते हो? वह बेचारे तो जब तक मैं घर में रहती हूं, अंदर कदम नहीं रखते।

गजाधर– चल छोकरी, मुझे न चरा। ऐसे-ऐसे कितने भले आदमियों को देख चुका हूं। वह देवता हैं, उन्हीं के पास जा। यह झोंपड़ी तेरे रहने योग्य नहीं है। तेरे हौंसले बढ़ रहे हैं। अब तेरा गुजर यहां न होगा।

सुमन देखती थी कि बात बढ़ती जाती है। यदि उसकी बातें किसी तरह लौट सकतीं तो उन्हें लौटा लेती, किन्तु निकला हुआ तीर कहां लौटता है? सुमन रोने लगी और बोली– मेरी आंखें फूट जाएं, अगर मैंने उनकी तरफ ताका भी हो। मेरी जीभ गिर जाए, अगर मैंने उनसे एक बात की हो। जरा मन बहलाने सुभद्रा के पास चली जाती हूं। अब मना करते हो, न जाऊंगी।

मन में जब एक बार भ्रम प्रवेश हो जाता है, तो उसका निकलना कठिन हो जाता है। गजाधर ने समझा कि सुमन इस समय केवल मेरा क्रोध शांत करने के लिए यह नम्रता दिखा रही है। कटुतापूर्ण स्वर से बोला– नहीं, जाओगी क्यों नहीं? वहां ऊंची अटारी सैर को मिलेगी, पकवान खाने को मिलेंगे, फूलों की सेज पर सोओगी, नित्य राग-रंग की धूम रहेगी।

व्यंग्य और क्रोध में आग और तेल का संबंध है। व्यंग्य हृदय को इस प्रकार विदीर्ण कर देता है, जैसे छेनी बर्फ के टुकड़े को। सुमन क्रोध से विह्वल होकर बोली– अच्छा तो जबान संभालो, बहुत हो चुका। घंटे भर में मुंह में जो अनाप-शनाप आता है, बकते जाते हो। मैं तरह देती जाती हूँ, उसका यह फल है। मुझे कोई कुलटा समझ लिया है?

गजाधर– मैं तो ऐसा ही समझता हूं।

सुमन– तुम मुझे मिथ्या पाप लगाते हो, ईश्वर तुमसे समझेंगे।

गजाधर– चली जा मेरे घर से रांड़, कोसती है।

सुमन– हां, यों कहो कि मुझे रखना नहीं चाहते। मेरे सिर पाप क्यों लगाते हो? क्या तुम्हीं मेरे अन्नदाता हो? जहां मजूरी करूंगी, वहीं पेट पाल लूंगी।

गजाधर– जाती है कि खड़ी गालियां देती है?

सुमन जैसी सगर्वा स्त्री इस अपमान को सह न सकी। घर से निकालने की धमकी भयंकर इरादों को पूरा कर देती है।

सुमन बोली– अच्छा लो, जाती हूं।

यह कहकर उसने दरवाजे की तरफ एक कदम बढ़ाया, किंतु अभी उसने जाने का निश्चय नहीं किया था।

गजाधर एक मिनट तक कुछ सोचता रहा, फिर बोला– अपने गहने-कपड़े लेती जा, यहां कोई काम नहीं है।

इस वाक्य ने टिमटिमाते हुए आशारूपी दीपक को बुझा दिया। सुमन को विश्वास हो गया कि अब यह घर मुझसे छूटा। रोती हुई बोली– मैं लेकर क्या करूंगी?

सुमन ने संदूकची उठा ली और द्वार से निकल आई, अभी तक उसकी आस नहीं टूटी थी। वह समझती थी कि गजाधर अब भी मनाने आवेगा, इसलिए वह दरवाजे के सामने सड़क पर चुपचाप खड़ी रही। रोते-रोते आंचल भीग गया था। एकाएक गजाधर ने दोनों किवाड़ ज़ोर से बंद कर लिए। वह मानों सुमन की आशा का द्वार था, जो सदैव के लिए उसकी ओर बंद हो गया। सोचने लगी, कहां जाऊं? उसे अब ग्लानि और पश्चात्ताप के बदले गजाधर पर क्रोध आ रहा था। उसने अपनी समझ में ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिसका ऐसा कठोर दंड मिलना चाहिए था। उसे घर आने में देर हो गई थी, इसके लिए दो-चार घुड़कियां बहुत थीं। यह निर्वासन उसे घोर अन्याय प्रतीत होता था।

उसने गजाधर को मनाने के लिए क्या नहीं किया? विनती की, खुशामद की, रोई, किंतु उसने सुमन का अपमान ही नहीं किया, उस पर मिथ्या दोषारोपण भी किया। इस समय यदि गजाधर मनाने भी आता, तो सुमन राजी न होती। उसने चलते-चलते कहा था, जाओ अब मुंह मत दिखाना। यह शब्द उसके कलेजे में चुभ गए थे। मैं ऐसी गई-बीती हूं कि अब मेरा मुंह भी देखना नहीं चाहते, तो फिर क्यों उन्हें मुंह दिखाऊं? क्या संसार में सब स्त्रियों के पति होते हैं? क्या अनाथाएं नहीं हैं? मैं भी अब अनाथा हूं।

वसंत के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अंतर है। एक सुखद और प्राणपोषक, दूसरी अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम-वसंत-समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू। जिस पुष्प को वसंत-समीर महीनों खिलाती है, उसे लू का एक झोंका जलाकर राख कर देता है। सुमन के घर से थोड़ी दूर पर एक खाली बरामदा था। वहां जाकर उसने संदूकची सिरहाने रखी और लेट गई। तीन बज चुके थे। दो घंटे उसने यह सोचने में काटे कि कहां जाऊं। उसकी सहचरियों में हिरिया नाम की एक दुष्ट स्त्री थी, वहां आश्रय मिल सकता था, किंतु सुमन उधर नहीं गई।

आत्मसम्मान का कुछ अंश अभी बाकी था। अब वह एक प्रकार से स्वच्छंद थी और उन दुष्कामनाओं को पूर्ण कर सकती थी, जिनके लिए उसका मन बरसों से लालायित हो रहा था। अब उस सुखमय जीवन के मार्ग में बाधा न थी। लेकिन जिस प्रकार बालक किसी गाय या बकरी को दूर से देखकर प्रसन्न होता है, पर उसके निकट आते ही भय से मुंह छिपा लेता है, उसी प्रकार सुमन अभिलाषाओं के द्वार पर पहुंचकर भी प्रवेश न कर सकी। लज्जा, खेद, घृणा, अपमान ने मिलकर उसके पैरों में बेड़ी-सी डाल दी। उसने निश्चय किया कि सुभद्रा के घर चलूं, वही खाना पका दिया करूंगी, सेवा-टहल करूंगी और पड़ी रहूंगी। आगे ईश्वर मालिक है।

उसने संदूकची आंचल में छिपा ली और पंडित पद्मसिंह के घर आ पहुंची। मुवक्किल हाथ-मुंह धो रहे थे। कोई आसन बिछाए ध्यान करता था और सोचता था, कहीं मेरे गवाह न बिगड़ जाएं। कोई माला फेरता था, मगर उसके दानों से उन रुपयों का हिसाब लगा रहा था, जो आज उसे व्यंय करने पड़ेंगे। मेहतर रात की पूड़िया समेट रहा था। सुमन को भीतर जाते हुए कुछ संकोच हुआ, लेकिन जीतन कहार को आते देखकर वह शीघ्रता से अंदर चली गई। सुभद्रा ने आश्चर्य से पूछा– घर से इतने सबेरे कैसे चलीं?

सुमन ने कुंठित स्वर से कहा– घर से निकाल दी गई हूं।

सुभद्रा– अरे। यह किस बात पर।

सुमन– यही कि रात मुझे यहां से जाने में देर हो गई।

सुभद्रा– इस जरा-सी बात का इतना बतंगड़। देखो, मैं उन्हें बुलवाती हूं। विचित्र मनुष्य हैं।

सुमन– नहीं, नहीं, उन्हें न बुलाना, मैं रो धोकर हार गई। लेकिन उस निर्दयी को तनिक भी दया न आई। मेरा हाथ पकड़कर घर से निकाल दिया। उसे घमंड है कि मैं ही इसे पालता हूं। मैं उसका यह घमंड तोड़ दूंगी।

सुभद्रा– चलो, ऐसी बातें न करो। मैं उन्हें बुलवाती हूं।

सुमन– मैं अब उसका मुंह नहीं देखना चाहती।

सुभद्रा– तो क्या ऐसा बिगाड़ हो गया है?

सुमन– हां, अब ऐसा ही है। अब उससे मेरा कोई नाता नहीं।

सुभद्रा ने सोचा, अभी क्रोध में कुछ न सूझेगा, दो-एक रोज में शांत हो जाएगी। बोली– अच्छा मुंह-हाथ धो डालो, आँखें चढ़ी हुई हैं। मालूम होता है, रात-भर सोई नहीं हो। कुछ देर सो लो, फिर बातें होंगी।

सुमन– आराम से सोना ही लिखा होता, तो क्या ऐसे कुपात्र से पाला पड़ता। अब तो तुम्हारी शरण में आई हूं। शरण दोगी तो रहूंगी, नहीं कहीं मुंह में कालिख लगाकर डूब मरूंगी। मुझे एक कोने में थोड़ी-सी जगह दे दो, वहीं पड़ी रहूंगी, अपने से जो कुछ हो सकेगा, तुम्हारी सेवा-टहल कर दिया करूंगी।

जब पंडितजी भीतर आए, तो सुभद्रा ने सारी कथा उनसे कही। पंडितजी बड़ी चिंता में पड़े। अपरिचित स्त्री को उसके पति से पूछे बिना अपने घर में रखना अनुचित मालूम हुआ। निश्चित किया कि चलकर गजाधर को बुलवाऊं और समझाकर उसका क्रोध शांत कर दूं। इस स्त्री का यहां से चला जाना ही अच्छा है।

उन्होंने बाहर आकर तुरंत गजाधर के बुलाने को आदमी भेजा, लेकिन वह घर पर न मिला। कचहरी से आकर पंडितजी ने फिर गजाधर को बुलवाया, लेकिन फिर वही हाल हुआ।

उधर गजाधर को ज्योंही मालूम हुआ कि सुमन पद्मसिंह के घर गई है, उसका संदेह पूरा हो गया है। वह घूम-घूमकर शर्माजी को बदनाम करने लगा। पहले विट्ठलदास के पास गया। उन्होंने उसकी कथा को वेद-वाक्य समझा। यह देश का सेवक और सामाजिक अत्याचारों का शत्रु– उदारता और अनुदारता का विलक्षण संयोग था। उसके विश्वासी हृदय में सारे जगत के प्रति सहानुभूति थी, किंतु अपने वादी के प्रति लेशमात्र भी सहानुभूति न थी। वैमनस्य में अंधविश्वास की चेष्टा होती है। जब से पद्मसिंह ने मुजरे का प्रस्ताव किया था, विट्ठलदास को उनसे द्वेष हो गया था। वे यह समाचार सुनते ही फूले न समाए। शर्माजी के मित्र और सहयोगियों के पास जा-जाकर इसकी सूचना दे आए। लोगों को कहते, देखा आपने। मैं कहता न था कि यह जलसा अवश्य रंग लाएगा। एक ब्राह्मणी को उसके घर से निकालकर अपने घर में रख लिया। बेचारा पति चारों ओर से रोता फिरता है। यह है उच्च शिक्षा का आदर्श। मैं तो ब्राह्मणी को उनके यहां देखते ही भांप गया था कि दाल में कुछ काला है। लेकिन यह न समझता था कि अंदर-ही-अंदर यह खिचड़ी पक रही है।

आश्चर्य तो यह था कि जो लोग शर्माजी के स्वभाव से भली-भांति परिचित थे, उन्होंने भी इस पर विश्वास कर लिया।

दूसरे दिन प्रातःकाल जीतन किसी काम से बाहर गया। चारों तरफ यही चर्चा सुनी। दुकानदार पूछते थे, क्यों जीतन, नई मालकिन के क्या रंग-ढंग हैं? जीतन यह आलोचनापूर्ण बातें सुनकर घबराया हुआ घर आया और बोला– भैया, बहूजी ने जो गजाधर की दुलहिन को घर में ठहरा लिया है, इस पर बाजार में बड़ी बदनामी हो रही है। ऐसा मालूम होता है कि यह गजाधर से लड़कर आई है।

वकील साहब ने यह सुना तो सन्नाटे में आ गए। कचहरी जाने के लिए अचकन पहन रहे थे, एक हाथ आस्तीन में था, दूसरा बाहर। कपड़े पहनने की सुधि न रही। उन्हें जिस बात का भय था, वह हो ही गई। अब उन्हें गजाधर की लापरवाही का मर्म ज्ञात हुआ। मूर्तिवत खड़े सोचते रहे कि क्या करूं? इसके सिवा और कौन-सा उपाय है कि उसे घर से निकाल दूं। उस पर जो बीतनी हो बीते, मेरा क्या वश है? किसी तरह बदनामी से तो बचूं। सुभद्रा पर जी में झुंझलाए इसे क्या पड़ी थी कि उसे अपने घर में ठहराया? मुझसे पूछा तक नहीं। उसे तो घर में बैठे रहना है, दूसरों के सामने आंखें तो मेरी नीची होंगी। मगर यहां से निकाल दूंगा तो बेचारी जाएगी कहां? यहां तो उसका कोई ठिकाना नहीं मालूम होता। गजाधर अब उसे शायद अपने घर में न रखेगा। आज दूसरा दिन है, उसने खबर तक नहीं ली। इससे तो यह विदित होता है कि उसने उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया है। दिल में मुझे दयाहीन और क्रूर समझेगी। लेकिन बदनामी से बचने का यही एकमात्र उपाय है। इसके सिवा और कुछ नहीं हो सकता। यह विवेचना करके वह जीतन से बोले– तुमने अब तक मुझसे क्यों न कहा?

जीतन– सरकार, मुझे आज ही तो मालूम हुआ है, नहीं तो जान लो भैया, मैं बिना कहे नहीं रहता।

शर्माजी– अच्छा, तो घर में जाओ और सुमन से कहो कि तुम्हारे यहां रहने से उनकी बदनामी हो रही है। जिस तरह बन पड़े, आज ही यहां से चली जाए। जरा आदमी की तरह बोलना, लाठी मत मारना। खूब समझाकर कहना कि उनका कोई वश नहीं है।

जीतन बहुत प्रसन्न हुआ। उसे सुमन से बड़ी चिढ़ थी, जो नौकरों को उन छोटे मनुष्यों से होती है, जो उनके स्वामी के मुंहलगे होते हैं। सुमन की चाल उसे अच्छी नहीं लगती थी। बुड्ढे लोग साधारण बनाव-श्रृंगार को भी संदेह की दृष्टि से देखते हैं। वह गंवार था। काले को काला कहता था, उजले को उजला; काले को उजला करने का ढंग उसे न आता था। यद्यपि शर्माजी ने समझा दिया था कि सावधानी से बातचीत करना, किंतु उसने जाते-ही-जाते सुमन का नाम लेकर जोर से पुकारा। सुमन शर्माजी के लिए पान लगा रही थी। जीतन की आवाज सुनकर चौंक पड़ी और कातर नेत्रों से उसकी ओर ताकने लगी।

जीतन ने कहा– ताकती क्या हो, वकील साहब का हुक्म है कि आज ही यहां से चली जाओ। सारे देश-भर में बदनाम कर दिया। तुमको लाज नहीं है, उनको तो नाम की लाज है। बांड़ा आप गए, चार हाथ की पगहिया भी लेते गए।

सुभद्रा के कान में भनक पड़ी, आकर बोली– क्या है जीतन, क्या कह रहे हो?

जीतन– कुछ नहीं, सरकार का हुक्म है कि यह अभी यहां से चली जाएं। देशभर में बदनामी हो रही है।

सुभद्रा– तुम जाकर जरा उन्हीं को यहां भेज दो।

सुमन की आँखों में आंसू भरे थे। खड़ी होकर बोली– नहीं बहूजी, उन्हें क्यों बुलाती हो? कोई किसी के घर में जबरदस्ती थोड़े ही रहता है। मैं अभी चली जाती हूं। अब इस चौखट के भीतर फिर पांव न रखूंगी।

विपत्ति में हमारी मनोवृत्तियां बड़ी प्रबल हो जाती हैं। उस समय बेमुरौवती घोर अन्याय प्रतीत होती है और सहानुभूति असीम कृपा। सुमन को शर्माजी से ऐसी आशा न थी। उस स्वाधीनता के साथ जो आपत्तिकाल में हृदय पर अधिकार पा जाती है, उसने शर्माजी को दुरात्मा, भीरु, दयाशून्य तथा नीच ठहराया। तुम आज अपनी बदनामी को डरते हो, तुमको इज्जत बड़ी प्यारी है। अभी कल तक एक वेश्या के साथ बैठे हुए फूले न समाते थे, उसके पैरों तले आंख बिछाते थे, तब इज्जत न जाती थी। आज तुम्हारी इज्जत में बट्टा लग गया है।

उसने सावधानी से संदूकची उठा ली और सुभद्रा को प्रणाम करके घर से चली गई।

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